खुशियां मानने भी मुहर्त की जरूरत क्यों

त्यौहारों को लेकर लोगों में कई तरह के भ्र्म फैलाने की कोशिश की जा रही जो गलत है। सरकारी स्कूलों में दीपावली की छुट्टी 20 को दी गई है।सोशल मीडिया में लोग दीपावली 21 की बताकर लोगों में आसमजस्य पैदा कर रहे हैँ। हर बार दीपावली बेला पर ऐसा भ्र्म फैलाया जा रहा है। दीपावली मौक़े पर रात को माता लक्ष्मी ग्रह प्रवेश करती ऐसी मान्यता है। रात को घी के दीप प्रज्वलीत किए जाने की प्रथा है। मगर कुछेक विद्वान् दीपावली का मुहर्त दोपहर बाद बताकर दिन में दीप जलाना चाहते हैँ। दीपावली उत्सव खुशियों का प्रतीक इसलिए इसे परंपरा अनुसार ही मनाया जाना उचित है। दीपावली की तैयारियों को लेकर लोग कई महीने पहले ही कमर कस लेते थे। आज के दौर में त्यौहार भी केवलमात्र एक औपचारिकता समझकर ही मनाए जाने शुरू हो चुके हैं। सोशल मीडिया मैं ही लोग ऐसे त्यौहारों की शुभकामनाएं देते फिर रहे हैं। अपने उत्सवों को लेकर लोगों में पहले जैसी उत्सुकता भी अब कहीं दिखाई नहीं देती है। बुराई पर अच्छाई की जीत के उपलक्ष्य में मनाए जाने बाला दीपावली पर्व का समाज के लिए एक संदेश है।यूं तो राम लीलाओं का मंचन कर साल हो रहा,मग़र अपने महाकाव्य रामायण के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ाने में हम अभी तक पूरी तरह से सफल नही हो पाए हैं। कलाकारों की और से रामायण का मंचन किए जाने को कुछेक लोग सिर्फ मनोरंजन का साधन मानते हैं। भगवान राम चन्द्र ने अपने पिता के बचन की लाज रखने के लिए चौदह सालों का बनवास स्वीकार कर लिया था। मोह माया के जाल में फंसकर राजा दशरथ की पत्नी कैकेई ने अपने बेटे भरत को राजगद्दी पर बैठाने की जिद्द ठान ली थी। भगवान राम चंद्र, लक्ष्मण और सीता के बनवास चले जाने के बाबजूद भी भरत का सिंहासन ग्रहण न करके अपने बड़े भाई राम चन्द्र की चरण पादुका को पूजना इस बात का संदेश की उस समय प्रेम भाव और समर्पण की भाबना ज्यादा थी। बनवास दौरान दलित छवरी देवी के हाथों से दिए गए बेर भगबान राम चन्द्र की और से बड़े आदर से खाए जाने का भी एक संदेश रहा है।देवताओं ने भी ऊंच,नीच का भेदभाव न जानकर मानवता का संदेश दिया है। दलित महर्षि बाल्मीकि की और से रामायण की रचना करना भी मानबता का ही प्रमाण रहा है। अपनी वहन सरूपनका की कटी हुई नाक का बदला लेने लिए राबण सीता का हरण करके उसे अपने साथ बेशक लंका ले गया, लेकिन उसने कभी सीता को हाथ तक नहीं लगाया था। राबण का बध करके जब भगवान राम चन्द्र वापिस अयोध्या लौटे तो लोगो ने घी के दीप जलाकर खुशियां मनाई थी।उसी समय से दीपावली मनाए जाने की परंपरा शुरू हो गई थी।दीपावली पर्व एक संदेश का प्रतीक जिसे परंपरा विपरीत मनाना एक ओपचारिकता सा लगता है।सोचने बाली बात यह कि क्या बास्तव में हम लोग दीपावली उत्सव सही मना रहे हैं?। एक समय ऐसा रहा कि कुम्हार समुदाय के लोग दीपाबली से पहले की उसकी तैयारियों में जुट जाते थे। इस समुदाय की और से मिट्टी के दीप, कुजे और खटनियाँ बनाकर लोगों को बेची जाती थी।दुकानदारों की दुकानों के आगे ऐसे बर्तनों के ढेर पड़े दीपावली आगमन का एहसास लोगों को कराते थे।गांवों के लोग कुम्हारों के घरों में जाकर उनसे दीप, कुजे और खटनियाँ खरीदकर लाते रहे हैं।दीपों में रूई की जोत बनाकर उनमें सरसों तेल या फिर देशी घी डालकर उन्हें प्रज्वलित करके अपने घरों में माता लक्ष्मी और अपने पितृ देबताओं की पूजा की जाती थी।घरों की ओरते रंगोली से अपने घरों को सजाकर रखती रही हैं। ऐसी मान्यता रही कि दीपावली बाले दिन घर में माता लक्ष्मी का प्रवेश होने से सुख,समृद्धि आएगी।इसी बजह से घरों के आंगन से लेकर कमरों तक रंगोली से उन्हें सजाया जाता। बहु,बेटियों को इस दिन खुशियों में शामिल होने के लिए अबश्य ही बुलाया जाता रहा है। दूर,दराज प्रदेशों में रोजगार कमाने गए लोग भी अक्सर दिपावली पर्व पर अपने परिबार बालों के साथ मनाने के लिए बापिस घर आते हैं। दीपावली उत्सव पर अक्सर घरों में मिठाइयाँ ओर कई तरह के पकवान पकाकर आस,पड़ोस और रिश्तेदारों को बांटे जाते थे।घर का मुखिया सूरज डूबते ही दीप प्रज्वलित करके अपने परिवार समेत माता लक्ष्मी ओर पितृ देबताओं की पूजा, अर्चना किया करते। कुल मिलाकर दीपावली उत्सव उस समय खुशियां मनाने बाला रहा है।दीपाबली उत्सव अब आधुनिक ढंग से मनाने की लोगों में आदत बढ़ती जा रही है। आजकल चाइना सामान का बाजार बहुत अधिक फलफूल रहा है। अब ज्यादातर लोग दीपों की जगह मोमबत्तियां जलाकर ही अपने दिल को तसल्ली दिए जा रहे हैं। बिजली की लंबी लड़ियाँ और एलईडी लाइटें लगाकर लोग एक दूसरे को दीपावली धूमधाम से मनाए जाने का संदेश दिए जाने में लगे हुए हैं। पूरी रात पटाखों चलाकर लोग एक किस्म से पर्यावरण को दूषित करने का काम ज्यादा कर रहे हैं आपसी देखा देखी में पटाखों पर ज्यादा से ज्यादा खर्चा किया जाना लोगों का शौक बनता जा रहा है।